मौलवी अहमदुल्लाह - 1857 के ग़दर का एक ऐसा नायक जिसे देश ने भुला दिया।
मौलवी अहमदुल्लाह - 1857 के ग़दर का एक ऐसा नायक जिसे देश बे भुला दिया। (The Hidden Heroes)
डंका शाह । नक्कार शाह । मौलवी अहमदउल्ला । कितने तो नाम थे, जिसे जैसे दिखे उसने उन्हें वैसे पुकारा, एक सूफी और एक क्रांतिकारी,1857 के महानायक, अवध के हीरो, बेगम हज़रत महल को विजय का झंडा थमाने वाले, क्या कहें इन्हें, कि आज देश आपको भी भूल गया है।
एक ऐसा रहस्यमयी लीडर जिसे अंग्रेज पकड़ते मगर हर बार रेत की तरह उनकी मुट्ठी से वह निकल जाते। जब तक एक हुलिया दिमाग मे बैठाते, उनका हुलिया बदल जाता। फैज़ाबाद में जब उन्हें आजीवन कारावास देकर कैद किया तो वह कैद हो गए, जब 1857 का बिगुल बजा तो सलाखें टूट गईं और निकल आया आवाम का बादशाह, लोगों को लगने लगा कि यह तो मौलवी अहमदुल्लाह हैं, जिनकी ख़ुद की मर्ज़ी से ही क़ैद और रिहाई चलती है ।
चल दिये लखनऊ की तरफ, रुदौली, दरियाबाद, बाराबंकी समेत आसपास के हर कस्बे को जीता और सब पर क्रांतिकारियों का कब्ज़ा करते हुए चिनहट में डेरा डाला और यूँ अवध आज़ाद होता गया।
असाधारण सैन्य छमता, संगठन बनाने और लोगों को संगठित करने की शानदार तकनीक, जब वह लखनऊ पहुँचे तो उनसे पहले पहुँचा उनका डर। हडसन को खदशा हो गया कि अवध अब हाथ मे नही आएगा। बेगम और मौलवी मिल गए हैं, इन्हें हराना नामुमकिन है ।
हडसन जिसने दिल्ली में मौत का मेला लगा रखा था,घर घर से खींचकर बहादुर शाह के सहयोगियों को फाँसी दिलवाई थी,उनके बेटों के सर थाल में भेजा था,उसी हडसन को लखनऊ की सरज़मीन पर मौलवी अहमदुल्ला ने ज़मींदोज़ कर दिया । वह तो जान से गया मगर अंग्रेज,जो दरारों को हवा देना जानते थे,चल दी अपनी चाल और उड़ा दी खबर की अहमदुल्लाह शाह खुद अवध की बागडोर लेना चाहते हैं और बांट दिया उन क्रांतिकारियों को जो मुट्ठी बनकर लड़ रहे थे । हर ऐश ओ आराम त्यागने वाले योद्धा को यह बात चुभ गई,मन खट्टा हो गया,मगर लड़ता रहा ।
लखनऊ को चिनहट से दरगाह हैदर अब्बास तक उन्होंने मुट्ठी में ले लिया,लखनऊ का यह आखरी मोर्चा था । वह आगे बढ़ना चाहते थे, लड़ते लड़ते जब दूसरे अंग्रेजों का पीछा किया,उनके पीछे बरेली शहजहांपुर तक दौड़ के गए मगर अंग्रेज उनसे भागते रहे । नाना साहब पेशवा और मौलवी की योजना थी कि साथ मे ही बरेली को जीत लिया जाए,शाहजहांपुर में डेरा डाला जाए । नाना साहब पेशवा ने गद्दारों और मुखबिरों के घर मे आग लगवा दी, दूसरी तरफ मौलवी अपने एक दोस्त राजा पुवायां जगन्नाथ सिंह के यहाँ योजना को अमली जामा पहनाने गए ।
अंग्रेजों ने पचास हज़ार चांदी के सिक्कों का ईनाम रखा,कहा जो डंका शाह का सर लाएगा वह यह ईनाम तो पाएगा ही,अंग्रेज़ो का सम्मान भी हासिल करेगा। दोस्त जगन्नाथ सिंह ने ईनाम की लालच में ईमान बेच दिया । आज ही के दिन 5 जून 1858 को महल में घुसते ही चमकते माथे पर चुपके से उसके भाई ने छिपकर गोली चला दी और मौलवी गिर गए। जिसका अंग्रेज कुछ कर न सके,उसकी पीठ पर दोस्त ने खँजर मारा और गर्दन उतार ली । रुमाल में वह सर अंग्रेज़ो को उपहार दिया गया और यह सर अंग्रेज़ो ने अपने मुख्यालय पर लटका दिया । ज़िन्दा जिस्म से डरने वाले अंग्रेज,उनका सर अपनी इमारत पर टांग इठलाए और कहा,हमारी हुक़ूमत की नींव मज़बूती से रख गई ।
हम भला उन्हें आज क्यों याद कर रहे हैं ज्यूंकि गद्दारों ने आज ही के रोज़ उन्हें शहीद किया था। वह हमेशा अंग्रेजों के लिए तिलिस्म की तरह रहे पर हारे तो अपने दोस्त से जिसपर बेपनाह भरोसा था... एक ऐसे हीरो जिसे देश ने आज भुला दिया है, हम उन्हें आज खिराजे अक़ीदत पेश करते हैं।
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