शायद यह अख़बार की पीड़ा भी है.... दैनिक भास्कर

 

शायद यह अख़बार की पीड़ा भी है। मामूली ख़बर करने का स्पेस ख़त्म हो गया है। अख़बार पाठकों को बता रहा है कि सबका यही हाल है। भास्कर ने तो कई बड़ी ख़बरें की हैं लेकिन तब भी अख़बार मीडिया में घट रहे स्पेस की पीड़ा को महसूस तो करता ही होगा। सभी जनता से उम्मीद कर रहे हैं लेकिन जनता का भी विकास क्रम यही है। उसे चारा चाहिए और नेता चारा डाल कर ग़ायब हो जाते हैं। 

यह तस्वीर राजनीति और अख़बार की पीड़ा बयान करती है। इसी के साथ अख़बार के भीतर के पत्रकार की भी पीड़ा झलक जाती है।उम्मीद है इस अख़बार में संपादक और पत्रकार का विकास क्रम ऐसा नहीं होगा। आप हँसेंगे कि इस अख़बार पर कह दिया लेकिन सच्चाई है कि सभी अख़बार और चैनल के बारे में कहा है।अपवाद नहीं है इसलिए अपवाद का नाम नहीं लिया। 

हम लोगों ने अपना सब कुछ दांव पर लगा कर उसी माध्यम के खिलाफ बोला, जिससे हमें रोज़गार पाना है। इस कारण बहुत से पत्रकार नौकरी सिस्टम से बाहर कर दिए गए। उनके कॉलम तक बंद हो गए। उम्मीद थी कि जनता साथ देगी, कुछ ने दिया भी लेकिन पर्याप्त साथ नहीं मिला। पत्रकारिता के ख़िलाफ बोलने वाले पत्रकारों के लिए सारे रास्ते बंद हो गए। अख़बार और राजनीति का कारोबार वैसे ही चलता रहा। पत्रकारों की बनाई साख पर दलालों ने क़ब्ज़ा कर लिया और जनता दलालों को पत्रकार बना बैठी। इस पोस्ट को हर संस्थान का पत्रकार पढ़ेगा तो यही कहेगा कि बात सही है। यह बात मैंने सभी संस्थानों के लिए कही है। अपवाद है नहीं तो अपवाद का नाम नहीं लिया।

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